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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 70 
देवयानी की स्थिति बड़ी विचित्र हो रही थी । क्रोध और हर्ष दोनों का विलक्षण संयोग हो रहा था देवयानी के मन में । ऐसा दुर्लभ संयोग यदा कदा ही बनता है । देवयानी को शर्मिष्ठा पर उसके कृत्य के लिए भयंकर क्रोध आ रहा था । "शर्मिष्ठा की इतनी हिम्मत कैसे हो सकती है जो वह मेरे कच के द्वारा भेंट में दिये गए दिव्य वस्त्र "अंगम" को हाथ लगाये । वह वस्त्र उसके पास कच की दी हुई अमानत है जिस पर केवल देवयानी का एकाधिकार है । उस दुष्ट, अधम, पतित शर्मिष्ठा ने छूकर उस दिव्य "अंगम" को अपवित्र कर दिया था । अब उसे कैसे पहन सकती है वह ? उसे छूने से उस अंगम में शर्मिष्ठा के तन की गंध बस गई होगी । वह गंध देवयानी को कैसे स्वीकार्य हो सकती है ? होगी वो राजकुमारी ! राजकुमारी होने से वह उससे श्रेष्ठ थोड़े ना हो जायेगी ? वह तो दैत्य गुरू शुक्राचार्य की इकलौती पुत्री है इसलिए उसकी प्रतिष्ठा शर्मिष्ठा से कहीं अधिक है । शर्मिष्ठा ने आज की जल क्रीड़ा का सारा आनंद खराब कर दिया था । जिस प्रकार दूध में एक बूंद भी यदि दही गिर जाये तो वह दही उस समस्त दूध को फाड़कर खराब कर देता है । उसी तरह शर्मिष्ठा की उस ओछी हरकत ने देवयानी के रंग में भंग डाल दिया था । उसके इस अपराध की सजा उसे अवश्य मिलनी चाहिए" । देवयानी सोच रही थी और अपने घर की ओर तेज तेज कदमों से जा रही थी । 

क्रोध के साथ साथ उसे हर्ष भी हो रहा था । हर्ष का कारण सम्राट ययाति था । नियति का प्रभाव था या कुछ और कि अचानक ऐसी घटना घटी कि यह सब कुछ हो गया । शर्मिष्ठा के साथ उसकी हाथापाई होना और शर्मिष्ठा के द्वारा उसे कुंए में धक्का दे देना , ये केवल संयोग था या नियति की कृपा ! नियति की कृपा इसलिए कि इस घटना ने उसे ययाति जैसे महान सम्राट की रानी बनने का सुअवसर प्रदान कर दिया । 

कहते हैं कि ईश्वर यदि एक हाथ से कुछ लेता है तो दूसरे हाथ से बहुत कुछ दे भी देता है । माना कि नियति ने कच को उससे छीन लिया था किन्तु ययाति के रूप में उसे संपूर्ण ऐश्वर्य भी तो प्रदान कर दिये थे । तो इसका अर्थ यह हुआ कि नियति मनुष्य के प्रति बहुत बहुत दयालु है । यदि उससे एक प्याला छीना गया था तो उसे सागर दे भी तो दिया था नियति ने । इससे अधिक कृपा और क्या होगी नियति की ?  उसे अपने भाग्य पर गर्व होने लगा । ययाति से मिलने के पश्चात वह अल्प समय के लिए कच को भूल गई थी । जैसे एक छोटा बच्चा कोई खिलौना पाकर अपनी मां को ही भूल जाता है और वह कुछ देर के लिए उस खिलौने में दत्त चित्त हो जाता है । वही हाल देवयानी का हो रहा था । 

ययाति का ध्यान आते ही वह हर्ष के सागर में तैरने लगी । ययाति का व्यक्तित्व कितना चित्ताकर्षक है ! ऐसा लगता है जैसे कामदेव और कार्तिकेय दोनों ने एक साथ ययाति के रूप में जन्म लिया हो । उसकी वृषभ जैसी बड़ी बड़ी आंखें बरबस खींच लेती हैं उसे देखने वालों को । गोल गौर वर्ण चेहरा । भौंहें जैसे धनुष की खिंची हुई कमान हों । लंबी तीखी नाक असि की तरह दुश्मन को चीरने को सदैव उद्यत रहती थी । घनी काली नुकीली मूंछों से ययाति का व्यक्तित्व और अधिक निखर गया था । उसके चेहरे का तेज कह रहा था कि ययाति कोई सामान्य पुरुष नहीं है बल्कि वह कोई दिव्य पुरुष है । वैसे इस बात में सत्यता है भी । ययाति की मां अशोक सुन्दरी भगवान शिव की पुत्री थी जो सौन्दर्य और विवेक की प्रतिमूर्ति थी । पिता नहुष नर श्रेष्ठ थे जिनकी ख्याति त्रैलोक्य तक फैली हुई थी । ऐसे माता पिता की संतान होने का सौभाग्य कुछ बिरले लोगों को ही प्राप्त होता है । ययाति ऐसा ही बिरला प्राणी था धरती पर । उसका सीना एवं कंधे बहुत विशाल थे जो उसके महान पराक्रमी होने का संदेश दे रहे थे । 

ययाति कोई राजा नहीं था । वह तो राजाओं का राजा था । एक सम्राट था , चक्रवर्ती सम्राट । चकवर्ती सम्राट होने का अर्थ है कि उस समय भारत में जितने भी राज्य थे, वे सब उसके अधीन थे । ययाति समस्त राजाओं का अधिपति था । देवयानी विवाहोपरांत हस्तिनापुर की साम्राज्ञी बनकर समस्त भूमंडल पर राज्य करेगी । इस कल्पना से ही देवयानी रोमाञ्चित हो गई थी । वह एक कुटिया से निकल कर हस्तिनापुर के अंत:पुर में एक विशाल राजप्रासाद में रहेगी । हजारों सेवक सेविकाऐं उसकी सेवा में सदैव तत्पर रहेंगे । उसके एक इशारे पर वे दौड़ते दिखाई देंगे । उसके पास रत्न जड़ित आभूषणों का पहाड़ होगा । अब एक नहीं अनेक "दिव्य" वस्त्र होंगे देवयानी के पास । वह सम्राट ययाति के हृदय की रानी होगी । "रंक" से वह "रानी" बन गई थी । इस अहसास ने शर्मिष्ठा के कृत्य को थोड़ी देर के लिए देवयानी के मन से भुला दिया था और वह ययाति के विचारों में मग्न होकर चलने लगी । 

लेकिन मनुष्य की प्रकृति ही उसकी प्रसन्नता और क्रोध को बनाए रखने का मूल आधार होती है । जिस व्यक्ति को किसी को कुछ देने में प्रसन्नता मिलती हो , उसकी प्रसन्नता स्थायी होती है क्योंकि उसके मन में ईर्ष्या-द्वेष नहीं होते हैं । जहां ईर्ष्या  - द्वेष नहीं होते हैं वहां सरलता , निर्मलता और स्पष्टता के कारण प्रसन्नता स्थायी रूप से निवास करने लगती है । किन्तु जहां अभिमान, दर्प , गर्व, श्रेष्ठ होने का भाव होता है वह व्यक्ति किसी को कुछ दे नहीं सकता है अपितु वह केवल लेना जानता है । "छिन" जाने का भय उसे सदैव सताता रहता है और इसी भय से क्रोध उत्पन्न होता है जो स्थायी रूप से ऐसे व्यक्ति के चेहरे पर विराजमान रहता है । 

अनेक ऋषि , महर्षि ऐसे हुए हैं जो क्रोध के लिए ही जाने जाते हैं , जैसे महर्षि दुर्वासा । क्रोध तो इनकी नाक पर रखा रहता था । ऋषि को तो क्रोध आना ही नहीं चाहिए क्योंकि समता अर्थात समत्व भाव के आने पर ही तो किसी व्यक्ति को "ऋषि" का दर्जा दिया जाता है । समता का अर्थ है अनुकूल और प्रतिकूल परास्थितियों में सम रहना और इन्हें ईश्वर की कृपा समझना । किसी में शत्रु भाव नहीं देखना । पर क्या देवयानी वह उच्च स्तर छू पाई थी ? इसलिए तो उसके मुख मंडल पर क्रोध का निवास रहता था । ऐसे व्यक्ति को संसार का कोई पदार्थ , क्रिया आदि प्रसन्न नहीं रख सकते हैं । 

देवयानी को शर्मिष्ठा का कृत्य पुन: स्मरण हो गया । यदि यह कहा जाये कि वह उसे भूली ही कब थी , तो यह कहना पूरी तरह समीचीन होगा । वह तरह तरह की योजनाऐं बनाने लगीं । शर्मिष्ठा को उसकी धृष्टता के लिए क्या दंड दिलाया जाये ? क्या मृत्यु दंड सही होगा ? "नहीं , मृत्युदंड नहीं दिलाया जा सकता । वह एक स्त्री है और स्त्री को मृत्यु दंड नहीं दिया जा सकता है । यदि उसे मृत्यु दंड दे भी दिया जाये तो यह दंड उसके लिए वरदान ही बन जाएगा । उसकी समस्त समस्याओं का इस दंड से अंत हो जाएगा । यही तो नहीं चाहती है वह । वह तो चाहती है कि शर्मिष्ठा अपने पूरे जीवन में एक पल को भी सुखी नहीं रहे, ऐसा कोई दंड देना चाहती थी उसे । उसे प्रत्येक समय यह अहसास होता रहे कि देवयानी के समक्ष वह कितनी तुच्छ है । ऐसा क्या दंड हो सकता है ? वह विचार करने लगी । 

तभी उसे याद आया कि शास्त्रों में लिखा है कि "पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं" । पराधीन व्यक्ति को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता है । यदि शर्मिष्ठा को "पराधीन" कर दिया जाये तो उसे सुख कैसे प्राप्त होगा ? उसे यह विचार पसंद आ गया । उसने शर्मिष्ठा को पराधीन करने का विचार बना लिया । इस विचार से उसके दग्ध हृदय को बहुत आराम मिला । दुष्ट व्यक्ति को अन्य व्यक्ति को कष्ट देकर जो आराम मिलता है वह अवर्णनीय है । देवयानी को अपनी समस्या का समाधान सूझ गया था । इससे बड़ा दंड और क्या हो सकता है शर्मिष्ठा के लिये । एक प्रकार से उसने शर्मिष्ठा को कोई शारीरिक दंड नहीं दिया था किन्तु यह दंड मृत्यु दंड से भी भयावह था । यह सोचकर उसके अधरों पर मुस्कान तैर गई थी । 

अब देवयानी सोचने लगी कि शर्मिष्ठा को किसके "अधीन" दासी रखा जाये जिससे उसे एक पल को भी चैन ना मिल सके ? क्या उसे अपने पिता शुक्राचार्य की दासी बना दिया जाये ? "हां, यह सही होगा । शुक्राचार्य ने जीवन भर कितने कष्ट सहे हैं , शर्मिष्ठा उनकी सेवा करेगी तो उ ए भी चैन मिलेगा । 

उसे अपने बचपन से लेकर आज तक की समस्त घटनाऐं याद आ गईं । शुक्राचार्य ने शर्मिष्ठा को अपनी पुत्री की तरह ही वात्सल्य दिया था । यदि शर्मिष्ठा वहां दासी रूप में रहेगी तो शुक्राचार्य उसे पुत्रीवत्व रख लेंगे । अब बात ये है कि एक पिता अपनी पुत्री को कष्ट कैसे दे सकता है ? नहीं, शर्मिष्ठा को पिता श्री की दासी नहीं बनाया जा सकता है क्योंकि वे उसे तुरंत ही दासत्व से मुक्त कर सकते हैं । यदि ऐसा हुआ तो उसके प्रतिशोध का क्या होगा ? शर्मिष्ठा राजकुमारी होने का कितना घमंड करती थी और मुझे "अकिंचन" समझ कर मेरा उपहास उड़ाया करती थी । अब परिस्थितियां परिवर्तित हो चुकी हैं । अब देवयानी "साम्राज्ञी" बनने वाली है और शर्मिष्ठा एक "दासी" । पिता श्री की दासी बनाने से उसका उद्देश्य पूर्ण नहीं होगा । उसने यह विचार अपने मस्तिष्क से निकाल दिया । 

इसके पश्चात उसने सोचा कि शर्मिष्ठा को महाराज ययाति की दासी बना दिया जाये । "हां, यह उपयुक्त रहेगा । शर्मिष्ठा उसकी नजरों के समक्ष ही रहेगी और वह पल प्रतिपल उसे प्रताड़ित होते हुए देख भी सकेगी । जब वह प्रताड़ित होगी तो उसे देखकर मुझे कितना आनंद आयेगा, यह सोच सोचकर ही मेरा मन आनंद के सागर में डूब रहा है । जब वास्तव में वह उसके सामने प्रताड़ित होगी तो वह सुख अविस्मरणीय होगा" । ऐसा सोचकर देवयानी प्रफुल्लित हो गई । उसने तय कर लिया कि शर्मिष्ठा को सम्राट ययाति की दासी बना दिया जायेगा । 

लेकिन तभी उसे ध्यान आया कि शर्मिष्ठा भी बहुत सुन्दर है । यद्यपि वह उससे अधिक सुन्दर नहीं है किन्तु सुन्दर तो है ही । "एक सुन्दर स्त्री को महाराज की दासी बनाना क्या उपयुक्त होगा ? कहीं ऐसा तो नहीं हो जायेगा कि महाराज उसके रूप यौवन में पूरे डूबकर उसी के होकर न रह जायें ! यह असम्भव तो नहीं है । ऐसा हो भी सकता है । पुरुष का हृदय "मोम" की तरह होता है । जिस प्रकार मोम जरा सी अग्नि देखकर ही पिघलने लगता है उसी प्रकार पुरुष का हृदय सौन्दर्य को देखकर मचलने लगता है । कल को यदि महाराज ययाति शर्मिष्ठा को अपना हृदय दे बैठे तो क्या होगा ? वह तो लुट ही जायेगी । फिर दंड शर्मिष्ठा को नहीं देवयानी को मिलेगा । उसे महाराज की दासी बनाने का विचार तो बहुत ही आत्मघाती सिद्ध हो सकता है । नहीं, नहीं , यह विचार उपयुक्त नहीं है" । देवयानी के मन में विचारों का तूफान उमड़ने लगा । 

तभी एकाएक उसे ध्यान आया कि यदि वह शर्मिष्ठा को स्वयं की दासी बना ले तो कैसा रहेगा ? शर्मिष्ठा सदैव उसकी आंखों के सम्मुख रहेगी । वह कदम कदम पर शर्मिष्ठा को प्रताड़ित भी करती रहेगी । उससे अधिक प्रताड़ना और कौन दे सकता है शर्मिष्ठा को ? वह पल पल उसे यह अहसास करायेगी कि वह कितनी हीन , असहाय , निर्बल है ! अभी तक वह स्वयं को कितनी भाग्यवान समझती आ रही थी,  किन्तु जब वह उसकी दासी बन जायेगी तो वह स्वयं को संसार की सबसे अधिक दुर्भाग्यशाली स्त्री समझेगी । वह दासी बनने पर न तो विवाह कर सकेगी और न ही वह मां बन सकेगी । इससे बड़ा अभिशाप और क्या हो सकता है एक स्त्री के लिए ! बिना ममत्व के स्त्री का जीवन व्यर्थ है । और जब वह मेरे पुत्रों को देखेगी तो ईर्ष्या की अग्नि में दग्ध होती रहेगी । इस तरह एक तीर से दो शिकार होंगे । शर्मिष्ठा तिरस्कृत होती रहेगी और देवयानी पुरुस्कृत । हां, यह दंड बिल्कुल उपयुक्त है शर्मिष्ठा के लिये । शर्मिष्ठा को उसकी दासी बनना होगा" । कल तक जो उसकी सखि थी वह आज से दासी बन जायेगी , यह सोचकर देवयानी का मन उमंगों से नाचने लगा । उसके अधरों पर मुस्कान खेलने लगी । उसकी आंखों में प्रकाश चमकने लगा और चेहरे पर दर्प के बादल छाने लगे थे । 

श्री हरि 
15.8.23 

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2 Comments

👏👌👍🏼

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Gunjan Kamal

16-Aug-2023 11:50 AM

शानदार भाग

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